CHAPTER- 1 संसाधन एवं विकास
NOTES
1. संसाधन- हमारे पर्यावरण में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती हैं और जिसको बनाने के लिए प्रोद्योगिकी उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से संभाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है, एक संसाधन हैं।
2. संसाधनों का वर्गीकरण-
क) उत्पत्ति के आधार पर- जैव और अजैव
ख) समाप्यता के आधार पर- नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य
ग) स्वामित्व के आधार पर- व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
घ) विकास के स्तर के आधार पर- संभावी, विकसित भंडार और संचित कोष
3. संसाधनों का विकास- संसाधन जिस प्रकार, मनुष्य के जीवन मापन के लिए अति आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
- मानव जीवन की गुणवत्ता और विश्व शांति बनाए रखने के लिए संसाधनों का समाज में न्यायसंगत बंटवारा आवश्यक हो गया है।
4. सतत् पोषणीय विकास- सतत् पोषणीय आर्थिक विकास का अर्थ है कि विकास पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाएं हो और वर्तमान विकास की प्रक्रिया भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की अवहेलना न करें।
5. रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992-
- जून 1992 में 100 से भी अधिक राष्ट्राध्यक्ष ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन में एकत्रित हुए।
- आयोजन विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक-आर्थिक विकास की समस्याओं का हल ढूंढ़ने के लिए किया गया था।
6. एजेंडा 21- एक घोषणा है जिसे 1992 में ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन के तत्वाधान में राष्ट्राध्यक्षों द्वारा स्वीकृत किया गया था।
- इसका उद्देश्य भूमंडलीय सतत् पोषणीय विकास हासिल करना है।
7. संसाधन नियोजन- संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है।
- कुछ ऐसे प्रदेश हैं जो संसाधनों की उपलब्धता के सन्दर्भ में आत्मनिर्भर हैं और कुछ ऐसे प्रदेश हैं जहां महत्वपूर्ण संसाधनों की अत्यधिक कमी है।
- राष्ट्रीय, प्रांतीय, प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर संतुलित संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।
8. भारत में संसाधन नियोजन- संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें निम्नलिखित सोपान है-
- देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना।
- संसाधन विकास योजनाएं लागू करने के लिए उपयुक्त प्रोद्योगिकी, कौशल और संस्थागत नियोजन ढांचा तैयार करना।
- संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समन्वय स्थापित करना।
- स्वाधीनता के बाद भारत में संसाधन नियोजन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही प्रयास किए गए।
9. संसाधनों का संरक्षण- संसाधनों का विवेकहीन उपभोग और अति उपयोग के कारण कई सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो सकती है। इन समस्याओं से बचाव के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है।
10. भू-संसाधन- भूमि एक बहुत महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं।
- भू-उपयोग- भू-संसाधनों का उपयोग निम्नलिखित उद्देश्यों से किया जाता है-
- वन
- कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि
- परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि
- परती भूमि
- शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र- वह भूमि जिस पर फसलें उगाई व काटी जाती है वह शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र कहलाता है।
11. भूमि निम्नीकरण और संरक्षण उपाय-
- मानव कार्यकलापों के कारण न केवल भूमि का निम्नीकरण हो रहा है बल्कि भूमि को नुक़सान पहुंचाने वाली प्राकृतिक ताकतों को भी बल मिला है।
- कुछ मानव क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन ने भी भूमि के निम्नीकरण में मुख्य भूमिका निभाई है।
- खनन के उपरांत खदानों वाले स्थानों को गहरी खाइयों और मलबे के साथ खुला छोड़ देना भूमि निम्नीकरण का कारण बना।
- अति सिंचन से उत्पन्न जलाक्रांतता भी भूमि निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है। जिससे मृदा में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ जाती है।
समस्याओं को सुलझाने के तरीके-
- वनारोपण और चरागाहों का उचित प्रबंधन।
- पेड़ों की रक्षक मेखला, पशुचारण नियंत्रण और रेतीले टीलों को कांटेदार झाड़ियां लगाकर स्थिर बनाने की प्रक्रिया।
- बंजर भूमि के उचित प्रबंधन खनन नियंत्रण और औद्योगिक जल को परिष्करण के पश्चात् विसर्जित करके जल और भूमि प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
12. मृदा संसाधन- मिट्टी अथवा मृदा सबसे महत्वपूर्ण नवीकरण योग्य प्राकृतिक संसाधन हैं।
- मृदा बनने की प्रक्रिया में उच्चावच, जनक शैल अथवा संस्तर शैल, जलवायु, वनस्पति और अन्य जैव पदार्थ और समय मुख्य कारक है।
- मृदाएं हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्रों सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी है।
- जलोढ़ मृदा- जलोढ़ मृदा में रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाए जाते हैं। आयु के आधार पर जलोढ़ मृदाएं दो प्रकार की है- पुराना जलोढ़ (बांगर) और नया जलोढ़ (खादर)
1. काली मृदा- इन मृदाओं का रंग काला है और इन्हें रेंगर मृदाएं भी कहा जाता है। यह मृदा कपास की खेती के लिए उचित समझी जाती।
- इस प्रकार की मृदाएं दक्कन पठार (बेसाल्ट) क्षेत्र के उत्तर पश्चिमी भागों में पाई जाती और लावा जनक शैली से बनी है।
- काली मृदा बहुत महीन कणों अर्थात् मृत्तिका से बनी है।
- ये मृदाएं कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूने जैसे पोष्टिक तत्वों से परिपूर्ण होती है।
- इसकी जुताई मानसून प्रारंभ होने की पहली बौछार से ही शुरू कर दी जाती।
2. लाल और पीली मृदा- लाल मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में रवेदार आग्नेय चट्टानों पर कम वर्षा वाले भागों में विकसित हुई।
- इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है। इनका पीला रंग इनमें जलयोजन के कारण होता है।
3. लेटराइट मृदा- लेटराइट शब्द ग्रीक भाषा के शब्द लेटर से लिया गया है जिसका अर्थ है ईंट।
- लेटराइट मृदा का निर्माण उष्णकटिबंधीय तथा उपोषण कटिबंधीय जलवायु क्षेत्रों में आर्द्र तथा शुष्क ऋतुओं के एक के बाद एक आने के कारण होता है।
- लेटराइट मृदा अधिकतर गहरा तथा अम्लीय PH<6.0 होती है।
3. मरुस्थलीय मृदा- इन मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है। ये मृदाएं आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती है।
- मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है और नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह पाई जाती है। इसके कारण मृदा में जल अंतः स्पंदन अवरुद्ध हो जाता है।
4. वन मृदा- ये मृदाएं आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है जहां पर्याप्त वर्षा-वन उपलब्ध है।
- नदी घाटियों में ये मृदाएं दोमट और सिल्टदार होती है।
- नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों, विशेषकर नदी सोपानों और जलोढ़ पंखों आदि में ये मृदाएं उपजाऊ होती है।
13. मृदा अपरदन और संरक्षण- मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहा जाता है।
- मानवीय क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण, निर्माण और खनन इत्यादि से कई बार यह संतुलन भंग हो जाता है तथा प्राकृतिक तत्व जैसे पवन, हिमनदी और जल मृदा अपरदन करते हैं।
- अवनलिकाएं- बहता जल मृत्तिका युक्त मृदाओं को काटते हुए गहरी वाहिकाएं बनाता है, जिन्हें अवनलिकाएं कहते हैं।
- उत्खात भूमि- ऐसी भूमि जोतने योग्य नहीं रहती इसे उत्खात भूमि कहते हैं।
- चादर अपरदन- कई बार जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है। इसे चादर अपरदन कहा जाता हैं।
- पवन अपरदन- पवन द्वारा मैदान अथवा ढालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने की प्रक्रिया को पवन अपरदन कहा जाता है।
- समोच्च जुताई- ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल बहाव की गति घटती है, इसे समोच्च जुताई कहा जाता है।
- पट्टी कृषि- फसलों के बीच में घास की पट्टियां उगाई जाती है। ये पवनो द्वारा जनित बल को कमजोर करती है। इस तरीके को पट्टी कृषि कहते हैं।