CLASS- 11 समाजशास्त्र (समाज का बोध)

 

CHAPTER- 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएं 

NOTES

1. समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का एक मुख्य उद्देश्य व्यक्ति तथा समाज के द्वंद्वात्मक संबंधों को समझना है। 


2. सामाजिक संरचना तथा सामाजिक स्तरीकरण-

  • सामाजिक संरचना शब्द इस तथ्य को दर्शाता है कि समाज संरचनात्मक हैं अर्थात अपने विशिष्ट रूप में वह क्रमवार तथा नियमित है।
  • लोगों का आचरण किस प्रकार का होता है तथा एक-दूसरे के प्रति उनके संबंध किस प्रकार के होते हैं- इसमें एक प्रकार की अंतर्निहित नियमितता अथवा प्रतिमान (पैटर्न) होता है। सामाजिक संरचना की संकल्पना नहीं नियमितताओं को इंगित करती है। 
  • सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा संबंधों से बनती है। 
  • सामाजिक विश्लेषण की प्रक्रिया में सामाजिक पुनरूत्पादन तथा सामाजिक संरचना एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। 
  • एमिल दुर्खाइम द्वारा आगे बढ़ाया जाने वाला एक मुख्य विषय यह है कि समाज अपने सदस्यों की क्रियाओं पर सामाजिक प्रतिबंध लगाते है। दुर्खाइम ने तर्क दिया कि व्यक्ति पर समाज का प्रभुत्व होता है। 
  • मार्क्स ने यह तर्क दिया कि मनुष्य इतिहास बनाता है, परंतु वह इतिहास निर्माण न तो उसकी इच्छा पर और न ही उसकी मनपसंद शर्तों पर आधारित होता है। 
  • सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय समाज में समूहों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के अस्तित्व, भौतिक अथवा प्रतिकात्मक पुरस्कारों की पहुंच से है। 
  • सामाजिक स्तरीकरण एक विस्तृत सामाजिक संरचना के भाग के रूप में असमानता के निश्चित प्रतिमान द्वारा पहचाना जाता है। 
3. लाभ के तीन बुनियादी प्रकार हैं जिसका विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा उपभोग किया जाता है:

a) जीवन अवसर- वे सभी भौतिक लाभ जो प्राप्तकर्ता के जीवन की गुणवत्ता को सुधारते हैं। उनमें केवल संपत्ति तथा आय जैसे आर्थिक लाभों को ही शामिल नहीं किया जाता बल्कि अन्य सुविधाओं जैसे- स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा तथा मनोरंजन को भी शामिल किया जाता है। 

b) सामाजिक प्रस्थिति- मान-सम्मान तथा समाज के अन्य व्यक्तियों की नजरों में उच्च स्थान। 

c) राजनैतिक प्रभाव- एक समूह द्वारा दूसरे समूह अथवा समूहों पर प्रभुत्व जमाना अथवा निर्णय निर्धारण में प्रमाणाधिक्य प्रभाव अथवा निर्णयों से अत्यधिक लाभ उठाना। 

4. समाजशास्त्र में सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने के तरीके- 
  • कार्ल मार्क्स तथा एमिल दुर्खाइम यह मानकर चलते हैं कि मनुष्यों को अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग करना होता है तथा अपने और अपनी दुनिया के लिए उत्पादन और पुनः उत्पादन करना पड़ता है। 
  • प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य- इसका सरोकार मुख्य रूप से समाज में व्यवस्था की आवश्यकता से हैं- जिन्हें कुछ प्रकार्यात्मक अनिवार्यताएं, प्रकार्यात्मक अपेक्षा तथा पूर्वापेक्षाएं कहा जाता है।
  • सहयोग, प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के आपसी संबंध अधिकतर जटिल होते हैं तथा ये आसानी से अलग नही किए जा सकते। 
5. सहयोग तथा श्रम विभाजन- 
  • सहयोग का विचार मानव व्यवहार की कुछ मान्यताओं पर आधारित है। 
  • अधिकतर समय समाजशास्त्र में इस मान्यता को सहमति नहीं मिली कि मनुष्य का स्वभाव घिनौना तथा क्रूर होता है। 
  • दुर्खाइम के लिए एकता समाज का नैतिक बल है तथा यह सहयोग और इस तरह समाज के प्रकार्यो को समझने के लिए बुनियादी अवयव है। 
  • श्रम विभाजन एक ही समय में जहां प्रकृति का नियम है वहीं दूसरी ओर मनुष्य व्यवहार का नैतिक नियम भी है। 
  • दुर्खाइम ने यांत्रिक तथा सावयवी एकता मे अंतर स्पष्ट किया जो क्रमशः पूर्व औद्योगिक तथा जटिल औद्योगिक समाजों की विशेषता थी। 
  • सावयवी एकता सामाजिक संहति का वह रूप है जो श्रम-विभाजन पर आधारित है तथा जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्यों में सह निर्भरता है। 
  • कार्ल मार्क्स भी मनुष्य जीवन तथा पशु जीवन में अंतर स्पष्ट करते हैं। जहां दुर्खाइम परार्थवाद तथा एकता को मानव दुनिया का विशिष्ट लक्षण मानते हैं वहीं मार्क्स चेतना पर बल देते हैं। 
  • मार्क्स के अनुसार ऐसे समाज में जहां वर्ग विद्यमान है वहां सहयोग स्वैच्छिक नहीं होता। 
  • मार्क्स ने अलगाव शब्द का प्रयोग श्रम की मूर्ति अन्तर्वस्तु तथा श्रम के उत्पाद पर मजदूरों के नियंत्रण में कमी के संदर्भ में किया है। 
6. प्रतिस्पर्धा- अवधारणा एवं व्यवहार के रूप में- 
  • समकालीन समय में यह सर्वप्रमुख विचार है तथा अधिकतर यह समझना मुश्किल होता है कि कहीं ऐसा समाज हो सकता है जहां प्रतिस्पर्धा एक मार्गदर्शक ताकत न हो। 
  • समकालीन विश्व में प्रतिस्पर्धा एक प्रमुख मानदंड तथा परिपाटी है। शास्त्रीय समाजवैज्ञानिकों जैसे एमिल दुर्खाइम तथा कार्ल मार्क्स ने आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद तथा प्रतिस्पर्धा के विकास को एक साथ आधुनिक समाजों में देखा है। 
  • पूंजीवाद की मौलिक मान्यताएं हैं- क) व्यापार का विस्तार, ख) श्रम विभाजन, ग) विशेषीकरण, घ) बढ़ती उत्पादकता। 
  • प्रतिस्पर्धा की विचारधारा पूंजीवाद की सशक्त विचारधारा है। इस विचारधारा का तर्क है कि बाजार इस प्रकार से कार्य करता है कि अधिकतम कार्यकुशलता सुनिश्चित हो सके। 
  • प्रतिस्पर्धा, पूंजीवाद के जन्म के साथ ही प्रबल इच्छा के रूप में फली-फूली। 
  • प्रतिस्पर्धा तथा पूंजीवाद के तहत उन्नीसवीं शताब्दी की संपूर्ण मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था, आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने में आवश्यक हो सकती है। 
7. संघर्ष तथा सहयोग- 
  • संघर्ष शब्द का अर्थ है हितों में टकराहट। 
  • संघर्ष के आधार भिन्न-भिन्न होते हैं। ये वर्ग अथवा जाति, जनजाति अथवा लिंग, नृजातीयता अथवा धार्मिक समुदायों में हो सकते हैं। 
  • समाजशास्त्रियों ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संघर्ष की प्रकृति तथा रूप सदैव परिवर्तित होते रहें हैं। 
  • सामाजिक परिवर्तन तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर सुविधावंचित तथा भेदभाव का सामना कर रहे समूहों द्वारा जताना संघर्षों को और उभारता है। 
  • पारंपरिक तौर पर परिवार तथा घर सामंजस्यपूर्ण इकाई के रूप में देखे जाते रहे हैं जहां सहयोग प्रमुख प्रक्रिया थी तथा परार्थवाद मनुष्य के आचरण के प्रेरणात्मक सिध्दांत थे।