CLASS- 12 इतिहास

CHAPTER- 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियां (हड़प्पा सभ्यता)

NOTES

1. हड़प्पा सभ्यता- इसे सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है।
  • सभ्यता का कुल समय काल 6000 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक है। 
  • सभ्यता का पतन 1900 ईसा पूर्व के आसपास शुरू होता है। 
  • हड़प्पा सभ्यता के निवासी कई प्रकार के पेड़-पौधों से प्राप्त उत्पाद और जानवरों जिनमें मछली भी शामिल हैं, से प्राप्त भोजन करते थे। 
  • हड़प्पा स्थलों से मिले अनाज के दानों में गेहूं, जौ, दाल, सफेद चना तथा तिल शामिल हैं। बाजरे के दाने गुजरात के स्थलों से प्राप्त हुए थे। चावल के दाने अपेक्षाकृत कम पाए गए हैं।
  • हड़प्पा स्थलों से मिली जानवरों की हड्डियों में मवेशियों, भेड़, बकरी, भैंस तथा सूअर की हड्डियां शामिल हैं। जंगली प्रजातियों जैसे वराह (सूअर), हिरण तथा घड़ियाल की हड्डियां भी मिली है। मछली तथा पक्षियों की हड्डियां भी मिली है। 
2. कृषि प्रौद्योगिकी- चोलिस्तान के कई स्थलों और बनावली (हरियाणा) से मिट्टी से बने हल के प्रतिरूप मिले हैं। इसके अतिरिक्त पुरातत्वविदों को कालीबंगन (राजस्थान) नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है जो आरंभिक हड़प्पा स्तरों से संबध्द है। 
  • एक साथ दो अलग-अलग फसलें उगाई जाती थीं। 
  • अफगानिस्तान में शोर्तुघई नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं, परंतु पंजाब और सिंध में नहीं। 
  • धौलावीरा (गुजरात) में मिले जलाशयों का प्रयोग संभवतः कृषि के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था। 
3. हड़प्पा संस्कृति के योजनाबद्ध शहर-
  • हड़प्पा सभ्यता का सबसे अनूठा पहलू शहरी केंद्रों का विकास था। 
  • बस्ती दो भागों में विभाजित है, एक छोटा लेकिन ऊंचाई पर बनाया गया और दूसरा कहीं अधिक बड़ा लेकिन नीचे बनाया गया। पुरातत्वविदों ने इन्हें दुर्ग और निचला शहर का नाम दिया हैं। 
  • दुर्ग की ऊंचाई का कारण यह था कि यहां की संरचनाएं कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बनीं थीं। दुर्ग को दीवार से घेरा गया था जिसका अर्थ है कि इसे निचले शहर से अलग किया गया था। 
a) नालों का निर्माण- हड़प्पा शहरों की सबसे अनूठी विशिष्टताओं में से एक ध्यानपूर्वक नियोजित जल निकास प्रणाली थी। 
  • निचले शहर की सड़कों तथा गलियों को लगभग एक 'ग्रिड पद्धति' में बनाया गया था और ये एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं। 
  • घरों के गंदे पानी को गलियों की नालियों से जोड़ना था तो प्रत्येक घर की कम से कम एक दीवार का गली से सटा होना आवश्यक था। 
b) गृह स्थापत्य-  मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों में से कई एक आंगन पर केंद्रित थे जिसके चारो ओर कमरे बने थे। 
  • आंगन, खाना पकाने और कटाई करने जैसी गतिविधियों का केंद्र था। 
  • भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियां नहीं थीं। 
  • मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आंगन का सीधा अवलोकन नहीं होता हैं। 
  • हर घर का ईंटों के फर्श से बना अपना एक स्नानघर होता था जिसकी नालियां दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी हुई थी। 
  • कुछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने हेतु बनाई गई सीढ़ियों के अवशेष मिले थे। 
  • कई आवासों में कुएं थे जो अधिकांशतः ऐसे कक्ष में बनाए गए थे जिसमें बाहर से आया जा सकता था और जिनका प्रयोग राहगीरों द्वारा किया जाता था। कुल कुओं की संख्या लगभग 700 थी।
c) दुर्ग- दुर्ग पर हमें ऐसी संरचनाओं के साक्ष्य मिलते हैं जिनका प्रयोग संभवतः विशिष्ट सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था। 
  • एक मालगोदाम- एक ऐसी विशाल संरचना है जिसके ईंटों से बने केवल निचले हिस्से शेष है, जबकि ऊपरी हिस्से जो संभवतः लकड़ी से बने थे, बहुत पहले ही नष्ट हो गए थे। 
  • दूसरा विशाल स्नानागार- आंगन में बना एक आयताकार जलाशय है जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है। 
  • जलाशय के तल तक जाने के लिए इसके उतरी और दक्षिणी भाग में दो सीढियां बनी थीं। 
  • जलाशय से बनी एक बड़े नाले में बह जाता था। 
  • इसके उत्तर में एक गली के दूसरी ओर एक अपेक्षाकृत छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानघर बनाए गए थे। 
4. सामाजिक भिन्नताओं का अवलोकन- 
a) शवाधान- हड़प्पा स्थलों से मिले शवाधानों में आमतौर पर मृतकों को गर्तों में दफ़नाया गया था। 
  • कभी-कभी शवाधान गर्त की बनावट एक दूसरे से भिन्न होती थी- कुछ स्थानों पर गर्त की सतहों पर ईंटों की चिनाई की गई थी। 
  • कुछ कब्रों में मृदभाण्ड तथा आभूषण मिले हैं जो इस मान्यता की ओर संकेत करते हैं जिसके अनुसार इन वस्तुओं का मृत्योपरांत प्रयोग किया जा सकता था। 
  • कहीं-कहीं पर मृतकों को तांबे के दर्पणों के साथ दफ़नाया गया था। 
b) विलासिता की वस्तुओं की खोज-
  • सामाजिक भिन्नता को पहचानने की एक अन्य विधि है ऐसी पुरावस्तुओं का अध्ययन जिन्हें पुरातत्वविद मोटे तौर पर उपयोगी तथा विलास की वस्तुओं में वर्गीकृत करते हैं। 
  • पहले वर्ग में रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुएं सम्मिलित हैं जैसे चक्कियां, मृदभाण्ड, सूइयां, झांवा आदि। ये वस्तुएं सामान्य रूप से व्यक्तियों में सर्वत्र पाईं गईं हैं। 
  • पुरातत्वविद उन वस्तुओं को कीमती मानते हैं जो दुर्लभ हो अथवा महंगी स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों से बनी हों। इस प्रकार फयाॅन्स के छोटे पात्र संभवतः कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था।
5. शिल्प उत्पादन की जानकारी- 
  • हड़प्पा सभ्यता का नगर चन्हुदडो़ लगभग पूरी तरह से शिल्प उत्पादन में संलग्न थी। शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातु कर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना सम्मिलित थे। 
  • मनको के निर्माण में प्रयुक्त पदार्थों की विविधता उल्लेखनीय है: कार्नीलियन (सुंदर लाल रंग का), जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर, तांबा, कांसा तथा सोने जैसी धातुएं तथा शंख, फयाॅन्स और पकी मिट्टी सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। 
  • इनके कई आकार होते थे; जैसे- चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित। 
  • सेलखड़ी जो एक बहुत मुलायम पत्थर है, पर आसानी से कार्य हो जाता था। कुछ मनके सेलखड़ी चूर्ण के लेप को सांचे में ढाल कर तैयार किए जाते थे। 
  • पुरातत्वविदों द्वारा किए गए प्रयोगों ने यह दर्शाया है कि कार्नीलियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनको को आग में पका कर प्राप्त किया जाता था। 
  • चन्हुदडो़ और लोथल से तैयार माल मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े शहरी केंद्रों तक लाया जाता था। 
a) उत्पादन केंद्रों की पहचान- शिल्प-उत्पादन के केंद्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद सामान्यतः निम्नलिखित को ढूंढते हैं: प्रस्तर पिंड, पूरे शंख तथा तांबा अयस्क जैसा कच्चा माल; औजार; अपूर्ण वस्तुएं; त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा करकट।

6. माल प्राप्त करने संबंधी नीतियां- 
  • शिल्प उत्पादन के लिए कई प्रकार के कच्चे माल का प्रयोग होता था। जिसमें पत्थर, लकड़ी तथा धातु जलोढ़क मैदान से बाहर के क्षेत्रों से मॅंगाने पड़ते थे। 
  • कच्चा माल प्राप्त करने की एक अन्य नीति थी- राजस्थान के खेतड़ी आंचल तथा दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में अभियान भेजना।
  • खेतड़ी क्षेत्र में मिले साक्ष्यों को पुरातत्वविदों ने गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है। 
  • पुरातात्विक खोजें इंगित करती हैं कि तांबा संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्व छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था। 
  • रासायनिक विश्लेषण दर्शाते हैं कि ओमानी तांबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं, दोनों में निकल के अंश मिले हैं जो दोनों के साझा उद्भव की ओर संकेत करते हैं। 
  • एक बड़ा हड़प्पाई मर्तबान जिसके ऊपर काली मिट्टी की एक मोटी परत चढ़ाई गई थी, ओमानी स्थलों से मिला है। 
  • तीसरी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में दिनांकित मेसोपोटामिया के लेखों में मगान जो संभवतः ओमान के लिए प्रयुक्त नाम था, नामक क्षेत्र से तांबे के आगमन के संदर्भ मिलते हैं। 
  • लंबी दूरी संपर्कों की ओर संकेत करने वाली अन्य पुरातात्विक खोजों में हड़प्पाई मुहरें, बाट, पासे तथा मनके शामिल हैं। 
7. मुहरें, लिपि तथा बाट- 

a) मुहरें और मुद्रांकन- मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था। 
  • मुद्रांकन से प्रेषक की पहचान का भी पता चलता था।
b) रहस्मय लिपि- हड़प्पाई मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा है जो संभवतः मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है। 
  • अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त है; सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिन्ह है। यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है, पर निश्चित रूप से यह वर्णमालीय नहीं थी क्योंकि इसमें चिन्हों की संख्या कहीं अधिक है- लगभग 375 से 400 के बीच। 
  • यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी। 
c) बाट- विनिमय बांटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियंत्रित थे। 
  • बाट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे और आमतौर पर ये किसी भी तरह के निशान से रहित घनाकार होते थे। 
  • छोटे बाटों का प्रयोग संभवतः आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था। 
8. प्राचीन सत्ता- सत्ता के केंद्र अथवा सत्ताधारी लोगों के विषय में पुरातात्विक विवरण हमें कोई त्वरित उत्तर नहीं देते। 
  • पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ो में मिले एक विशाल भवन को एक प्रासाद की संज्ञा दी। 
  • एक पत्थर की मूर्ति को पुरोहित-राजा की संज्ञा दी गई थी। 
  • पुरातत्वविद मेसोपोटामिया के इतिहास तथा वहां के पुरोहित-राजाओं से परिचित थे और यही सामानताएं उन्होंने सिंधु क्षेत्र में भी ढूंढ़ी।
  • कुछ पुरातत्वविद इस मत के है कि हड़प्पाई समाज में शासक नहीं थे तथा सभी की सामाजिक स्थिति समान थी। 
9. सभ्यता का अंत- ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार लगभग 1800 ईसा पूर्व तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों को त्याग दिया गया था। साथ ही गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी थी। 
  • उत्तर हड़प्पा के क्षेत्र 1900 ईसा पूर्व के बाद भी अस्तित्व में रहें। 
  • सभ्यता के अंत के विषय में कई व्याख्याएं दी गई है- 
- जलवायु परिवर्तन, - वनों की कटाई, - अत्यधिक बाढ़, - नदियों का सुख जाना और/या मार्ग बदल लेना, - भूमि का अत्यधिक उपयोग। 
  • इनमें से कुछ कारण कुछ बस्तियों के संदर्भ में तो यही हो सकते हैं परंतु पूरी सभ्यता के पतन की व्याख्या नहीं करते। 
10. हड़प्पा सभ्यता की खोज-

a) कनिंघम का भ्रम- जड भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पुरातात्विक उत्खनन आरंभ किए। 
  • कनिंघम की मुख्य रुचि भी आरंभिक ऐतिहासिक तथा उसके बाद के कालों से संबंधित पुरातत्व में थी।
  • कनिंघम ने अपने सर्वेक्षणों के दौरान मिले अभिलेखों का संग्रहण, प्रलेखन तथा अनुवाद भी किया। 
  • एक अंग्रेज ने कनिंघम को एक हड़प्पाई मुहर दी। उन्होंने मुहर पर ध्यान तो दिया पर उन्होंने उसे एक ऐसे काल-खंड में, दिनांकित करने का असफल प्रयास किया जिससे वे परिचित थे। 
b) नवीन प्राचीन सभ्यता- बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में दया राम साहनी जैसे पुरातत्वविदों ने हड़प्पा में मुहरें खोज निकाली जो निश्चित रूप से आरंभिक ऐतिहासिक स्तरों से कहीं अधिक प्राचीन स्तरों से संबध्द थी।
  • 1924 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल जाॅन मार्शल ने पूरे विश्व के समक्ष सिंधु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की।
  • भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल के रूप में जाॅन मार्शल का कार्यकाल वास्तव में भारतीय पुरातत्व में एक व्यापक परिवर्तन का काल था। 
11. खोजों का वर्गीकरण- पुरावस्तुओं की पुनः प्राप्ति पुरातात्विक उद्यम का आरंभ मात्र है। इसके बाद पुरातत्वविद अपनी खोजों को वर्गीकृत करते हैं। 
  • वर्गीकरण का एक सामान्य सिद्धांत प्रयुक्त पदार्थों जैसे- पत्थर, मिट्टी, धातु, अस्थि, हाथीदांत आदि के संबंध में होता है। 
  • दूसरा और अधिक जटिल, उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है। 
12. व्याख्या की समस्याएं- पुरातात्विक व्यवस्था की समस्याएं संभवतः सबसे अधिक धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण के प्रयासों में सामने आती हैं।
  • आभूषणों से लदी हुई नारी मृण्मूर्तियां जिनमें से कुछ के शीर्ष पर विस्तृत प्रसाधन थे, शामिल हैं। इन्हें मातृदेवियों की संज्ञा दी गई है।